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________________ ३६२ जिनह प्रन्थावली थैतो कांड तजौ निरदोस, सलूणी कामिनी, आ तो अपछर रे, अनुहार चलें गज गामिनी । सधीरा हुई रहया, सरीआजी रा थे वीर, मैं तो इण भव तोरा नाह, चरण सरणं ग्रथा ||७|| तूं तो सुण कोस्या संसार, असार असासतो, श्री जिनवर भाषित, धरम अछै इक सासतो । सहु भोग संयोग, किंपाक सरीखा ए अछे, समझि - समझि गुणवंत, कहिसि न कहो पर्छ ||८|| दे उपदेस विसेस, धरम सुं रीझवी, धन धन धूलिभद्र जेणि, कोस्या सील तणो व्रत जेणि, धरयो थह लुलि - लुलि लागी चरणे, पुण्य पुण्य करि नै चौमास उल्हास, गुरां पासै गया, दुक्कर दुक्कर कार, कही ऊभा थया । पंच महाव्रत निरमल चित्ते पालीया, देव थया देवलोक तथा सुख भालिया ॥१०॥ एहवा जे मुनिवर गावे, जे गुण जीभड़ी, जनम सफल दिन सफल, सफल थाये घड़ी । चउरासी चौवीसी, नाम न जावसी, कहै जिनहरख सुजांण, वणा सुख पावसी ॥११॥ प्रतिवझवी । श्राविका, प्रभाविका ॥६॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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