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________________ श्री चौवीस जिन स्तवन दाल झवखारी विमल विमल मति गाइये, कृतवर्म स्यामामात । जिणेसर वंदीये अनंत अनंत महिमा धरूं, सिंहसेन सुजसा विख्यात ॥७॥ धरमनाथ जिन पनरमो, भानु सुवरता जाणि । शांतिनाथ जिन सोलमो, विश्वसेन अचिरा वखाणि ॥८॥ कुंथुनाथ जिन सतरमो, सूर पिता श्री माय । अठारम अरि गाइय, देवी सुदर्शन लाय ॥६॥ ___ ढाल चूनड़ी री मल्लीनाथ उगणीसमो, नृप कुंभ प्रभावती दाख रे। मुनिसुव्रत सांमी सेवीय, श्री सुमित्र सुपदमा भाख रे ॥१०॥ जिन चौबीसै भवियण नमो, निज मन-वच-क्रम थिर राख रे । नमि इकवीसमो निरखीयो, राय विजय वप्रा नितमेव रे । बावीसमो नेम जादवधणी, श्रीसमुद्रविजय शिवादेवि रे ॥११॥ पुरसादाणी पासजी, अश्वसेण वामा सुवदीत रे । महावीर सिद्धारथ कुलतिलौ, त्रिसला जग उत्तम रीत रे॥१२॥ कलस इय सकल जिनवर सुजस सुखकर, नमत सुर नर मुनिवरौ, दुख हरण तिहुअण सयण रंजण, आस पूरण सुरतरो । श्रीसोम गणिवर सीस आखे, सुजस विसवा वीसए जिनहरख भव जल तरण तारण, तरी जिन चोवीस ए।१३।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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