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________________ __ श्री पार्श्वनाथ घग्घर निशाणी ३१३ तत्ता थेई थइ तत्ता भापंता डंडारसभेद रमंदा है ॥ . दिन-त्रिक वितीता तोही न वीता पावस जल पसरंदा है। धरणीपति जाण्या ज्ञान पिछाण्या कमठासुर कोपंदा है ॥१८॥ 'नागंदा पत्ती आंख्यां रत्ती कित्ती रीस भरंदा है। रे मूढा धिटा चित्त विणहा क्यु नाहीं समझंदा है ॥ साहिब बलवंता जोर अनंता तूं तो नहिं जाणंदा है । ए खिमा सागर* गुणके आगर तीनुं लोक नमंदा है ।१६॥ असमांन खमाए रीस भराए एह काइ वरजंदा है। कित्ती बहु गल्लां पड़े दहल्लां धड़हड़दे धूजंदा है ।। धरणेन्द्र डरायो तव ते आयो पावां वेग लगंदा है । कर जोड़ खमाया सीस नमाया जगनायक जिणचंदा है ।२०॥ तूं खाहिव सच्चा तो गुण रचा, मेरा दिल खुलंदा है। ते रीस न धरियां क्षिणही विरियां, तूं ही अचल गिरंदा है। कमठासुर कित्ती बहु विनत्ती, निज अपराध खमंदा है । सुरपति सिधाये निज घर आये, प्रभु के गुण समरंदा है ॥२१॥ सुध संजम पाले दोष निहाले, तब केवल उपजंदा है। सम्मेतशिखर पर चढ़के ऊपर, सिद्धपुरी पोहचंदा है। तेरी कीरत्ती जग ऊपती, पार न को पावंदा है। तूं सच्चारक्खे भेदपरक्खे, गुमानी मोडंदा है ॥ २२ ॥ तूं अंतरजामी तूं बहुनामी, सुरनर सेव करंदा है। तूं दिवाणा तूं' खूमाणा, तूं मोजी मकरंदा है। देवागिरि
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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