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गुरु परम्परा
दादाजी के नाम से प्रसिद्ध खरतर गच्छाचार्य श्रीजिनकुगलबूरिजी' की शिष्य परम्परा में आप वाचक श्रीसोमजी के शिष्य शान्तिहर्षजी के शिष्य थे। अन्य साधनों से आपका वश-वृक्ष इसप्रकार है-१ श्रीजिनकुशलसूरि ( स्वर्ग स० १३८६), २-महोपाध्याय विनयप्रभ, ३ उ० विजयतिलक, ४ क्षेमकीर्ति गणि, ५ उपा० तपोरल, ६ वाचक भुवनसोम, ७ उ० साघुरग, ८ वा० धर्मसुन्दर, ६ वा. दानविनय, १० वा० गुणवर्द्धन, ११ वा० श्रीमोम, १२ वा० शातिहर्ष, १३ जिनहर्प। जन्म-स्थान, विहार एवं रचनाएं ___ आपकी कृतियों से स्पष्ट है कि सवत् १७३५ तक आप राजस्थान में ही विचरे थे। वील्हावास, साचौर, मेडता, वाहडमेर आदि में रचित आपकी कई रचनाए उपलब्ध हैं। हमारे विचार में आपका जन्मस्थान भो मारवाड ही होगा। आपकी प्रारम्भिक रचनाए और दोहे इत्यादि अधिकांश राजस्थानी भाषा में और कुछ हिन्दी में रचित है । सं० १७३६ से आप पाटण में अधिक रहने लगे थे। वीच में स० १७३७ में मेहता, सं० १७३८ में राधनपुर, स० १७४१ में राजनगर में रचित रासादि उपलब्ध है एव तीर्थयात्रा के हेतु आप समय-समय पर शत्रुञ्जय (सं० १७४५, स० १७५८ ), सम्मेतशिखर (स० १७४४) तारगा, सोवनगिरि, धुलेवा, नीवाज, नारगपुर, कसारी, पचासरा, फलोधी, कापरहेडा, गौडीजी, चारूप, सखेश्वर आदि स्थानो में पधारे थे पर स० १७३६ से
१-देखें-दादा जिनकुशलसूरि ।