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उपदेश छत्तीसी
अथ लोभ दूपण कथन सवइया ३१
__ माया काहें कु वढावइ काहू के न साथि श्रावै, आई न आवैगी देख चित्त में विचार कै ।
माया कटायै सीस लार वहै निस दीस,
भूप गहै दहै आगि चोर ल्यहइ मारि के। सुपन लह्यो ज्यु राति कारमी ह बात जान, तैसै माया क्युन देखै आंखिन उघारि के ।
कह जिनहरख हरख धरि करतूत,
मेरे यार नंदराय कुल्दो संभारि कै ॥६॥ अथ संसार असार स्वरूप कथन सवइया ३१ यौ तौ है संसार सविक्रार कछु सार नही, दीसता है मेरे यार छार ज्यु असार ज्यु।
काहै लपटाय रहै काहे कुतु दुख सहै,
काँहै भ्रम भूलो श्रम भूला है अपारी जू । जासु तू कहत सुख सो तो दुख रूप आही, - माखी जैसे रही लाग मिठाई मझार जू ।
काहै जिनहरख न उडि सकै धकै परी, तकै चिहुं ओर असो जाणिले संसार जू ॥१०॥