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जिनहर्प-ग्रन्थावली
कलश [ढाल-मा पावागढथी जर्या मा । ए देगी ] सारद तुझ सुपसाउलइ रे, मा गाया गरवा वीसरे । जुगतिस्यु भावे दे भगतिस्यु मइ थुण्या रे । मा ए तीसे जगबंधवा रे, मा ए बीसे जगदीश रे ॥१॥ मा जंबूढीव विदेहमां रे, मा विचरंता जिन च्यारि रे । मा आठे अरिहंत उपदीसइ रे, मा धातकि विदेह मझारि ॥२॥ मा पुष्कर अरथ विदेहमां रे, मा पाठे करइ विहाररे । मा केवल ज्ञानइ सोहता रे, मा धरम तणा दातार रे ॥३॥ मा ए वीसे जिनवरतणारे. मा सारीपा बल रूप रे। मा कंचण वरण सह तणा रे, मा पाय नमइ सुर भूप रे।।४॥ मा काया सहुनी पांचसइ रे, मा धनुष ऊंची इम दापी रे । मा पाऊपा सह जिन तणारे,मा पूरव चउरासी लापरे।। मा वीसे जिनवर माहरा रे, मा साहिब हुँ तउ दास रे । मा प्रभुजोनी पगरज सिर घरमा सेवा करू उलास रे। मा ते दिन कहीयई थाइस्यइ र, मा देवीसि हुँ दीदार रे । मा वीनविसु मन वातडी रे,मा प्रभु आगलि किणि वार रे७ मा चउविह संघमां परवर्या रे, मा बइठा त्रिगढा मांहि र । मा बीसे जिननी साहिबी रे, मा देषु परम उछाहि रे ।८।।