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________________ वीशी ५२ छोडी रे विपय विकार, कीजइ प्रभुनी चाकरी रे । थायइ रे जो ए पुस्याल, आपइ मुगती पुरी सिरी रे ॥४॥ एहवउ रे कोई नही देव, एहनी करइ तडो वडी रे । देवना रे देव नउ देव, एहनी ठकुराई वडीरे ॥ ५ ॥ घरीयइ रे हीयडइ ध्यान, करम पपइ भव केरडां रे । थायइ र प्रभु सुपसाय, कहइ जिनहरप न फेरडां रे ॥६॥ महाभद्र-जिन-स्तवन [ ढाल-दल वादल उलट्या हो नदी ए नीर चल्यो । ए देशी ]. अढारमा साहिब हो, कीधी बात कहुं । तु अंतर जामी हो, चरणे लागी रहुं ॥१॥ हुं तउ प्रभु अपराधी हो, कुटल कदाग्रही । मिथ्यातइ मुक्यउ हो, सुमति न मन रही ॥२॥ मइ जीव संताप्या हो, आल वचन कह्यां । मई अब्रह्म सेव्यां हो, दान अदत्त ग्रह्यां ॥३॥ परिग्रह बहु मेल्या हो, रात्री भोजन कर्यां, बहु कपटइभरीयउ हो, क्रोधादिक धर्यां।।४।। मइ किरीया कीधी हो, लोक दिपावणी । मन माहे करडू हो, हुं त्रिभुवन धणी ॥५॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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