SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४०) मिले देव निरदोष, वाणी भी जिनकी कही । सुणि० ॥२॥ चरचाको परसंग, अरु सरध्यामैं वैठियो।ऐसा औसर फेरि, कोटि जनम नहिं भैटिवो । सुणि० ॥३॥ झूठी आशा छोडि, तत्त्वारथ रुचि धारिल्यो । यामैं कछु न विगार आपो आप सुधारिल्यो। सुणि० ॥४॥ तनको आतम मानि, भोग विषय कारज करौ । यौ ही करत अकाज, भव भव क्यों कूवे परौ ॥ सुणि० ॥५॥ कोटि ग्रंथको सार, जो भाई वुधजन करौ । राग दोष परिहार, याही भवसौं उद्धरौ।। सुणि० ॥६॥ (१००) राग-सोरठ। अव थे क्यों दुख पावौ रे जियरा, जिनमत समकित धारौ ॥ अव० ॥ टेक ॥ निलज नारि सुत व्यसनी सूरख, किंकर करत बिगारौ । साहिब सूम अदेखक भैया, कैसे करत गुजारौ ॥ अव०॥१॥ वाय पित्त कफ खांसी तन दृग, दीसत नाहि उजारौ । करजदार अरुवेरुजगारी, कोऊ नाहिं सहारौ ॥ अव०॥२॥ इत्यादिक दुख सहज जानियौ, सुनियो अव विस्तारौ । लख चौरासी अनत । भवनलौं, जनम मरन दुख भारौ॥ अव०॥३॥ दोपरहित जिनवरपद पूजौ, गुरु निरग्रंथ विचारौ । बुधजन धर्म दया उर धारी, व्है है जै जैकारौ ॥ अब० ॥४॥ (१०१) राग-सोरठ। - म्हारौ मन लीनौ छै थे मोहि, आनंदघन जी॥ म्हारो०
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy