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દર
तृतीयभाग | माहिं ॥ ते गुरु० ॥ ११ ॥ रंगमहलमें पौड़ते, कोमल सेज विछाय । ते पच्छिमनिशि भूमिमें, म संवरि काय ॥ ते गुरु० ॥ १२ ॥ गज चढ़ि चलते गुरवसों, सेना सजि चतुरंग । निरखि निरखि पग वे धरें, पार्ले करुणा अंग ॥ ते गुरु० ॥ १३ ॥ वे गुरु चरण जहां धरें, जगमें तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ौ, भूधर मांगै येह || ते गुरु० ॥ १४ ॥
७८. पंचनमोकारमंत्रमाहात्म्यकी ढाल ।
श्रीगुरु शिक्षा देत हैं, सुनि प्रानी रे ! सुमर मंत्र नौकार, सीख सुनि प्रानी रे ! लोकोत्तम मंगल महा, सुनि प्रानी रे ! अशरन-जन-आधार, सीख सुनि प्रानी रे ! ॥ १ ॥ प्राकृत रूप अनादि है, सुनि प्रानी रे ! मित अच्छर पैंतीस, सीख सुनि प्रानी रे ! पाप जाय सव जापतें, सुनि प्रानी रे ! भाप्यो गणधरईश, सीख सुनि प्रानी रे ! || २ || मन पवित्र करि मंत्रको, सुनि प्रानी रे ! सुमरै शंका छोरि, सीख सुनि प्रानी रे ! वांछित वर पावै सही, सुनि प्रानी रे !