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जैन पदसंग्रह
७६. विनती।
(ढाल परमादी।) अहो! जगतगुरु एक, सुनियो अरज ह. मारी । तुम हो दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ १॥ इस भव वनमें वादि, काल. अनादि गमायो । भ्रमत चहूँगतिमाहि, सुख नहिं दुख बहु पायो ॥२॥ कर्म महारिपु जोर, एक न कान करें जी । मनमान्यां दुख देहि, काहूसों न डरै जी ॥३॥ कबहूं इतर निगोद, कबहूं नर्क दिखावें । सुरनर पशुगतिमाहि, बहुविधि नाच नचावें ॥४॥ प्रभु! इनके परसंग, भव भवमाहिं बुरे जी । जे दुख देखे देव!, तुमसों नाहिं दुरे जी ॥५॥ एक जन्मकी बात, कहि न सकों सुनि स्वामी! । तुम अनन्त परजाय, जानत अंतरजामी ॥ ६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे । कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥७॥ ज्ञान महानिधि लुटि, रंक निबल करि डाखो । इनही तुम मुझमाहि, २ जिन! अंतर पाखो ॥८॥ पाप पुन्यकी