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________________ जैन पदसंग्रह रस भूधर, भीखकेमाहिं सुलाज न आई । अरे हां०॥४॥ ६१. राग सोरठ। सो गुरुदेव हमारा है साधो ॥ टेक ॥ जोग अगनिमें जो थिर राखै, यह चित चंचल पारा है ॥ सो गुरु० ॥१॥ करन कुरंग खरे मदमाते, जप तप खेत उजीरा है । संजम डोर जोर वश कीने, ऐसा ज्ञान विचारा है ॥ सो गुरु० ॥ २ ॥ जा लक्ष्मीको सब जग चाहै, दास. हुआ जग सारा है । सो प्रभुके चरननकी चेरी, देखो अचरज भारा है । सो गुरु०॥३॥ लोभ सरपके कहर जहरकी, लहर गई दुख टारा है । भूधर ता रिखका शिंख हूजे, तब कछु होय सुधारा है ॥ सो गुरु०॥ ४ ॥ ६२. राग सोरठ। स्वामीजी सांची सरन तुम्हारी ॥ टेक ॥ समरथ शांत सकल गुनपूरे, भयो भरोसो - भारी ॥ स्वामी०॥ १॥ जनम जरा जग बैरी १ इन्द्रिय । २ उजाडा, नष्ट किया । ३ ऋषि-मुनिका । ४ शिष्य ।
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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