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द्वितीयभाग।
राग भैरव । । सुन्दर दशलच्छन वृष, मेय सदा भाई।
जामते ततच्छन जन, होय विश्वराई ॥ टेक ॥ क्रोधको निरोध शांत, सुधाका नितांत शोध, मानको ती भजी स्वभाव कोमलाई ॥१॥ छल बल तजि सदा विमलभाव मरलनाई भात, सर्व जीव चैन दैन, वैन कह सुहाई ॥२॥ ज्ञान तीर्थ स्नान दान, ध्यान भान हृदय आन, दया-चरन धारि करन-विषय मय बिहाई ॥ ॥ आलस हरि द्वादश तप, धारि शुद्ध मानस करि, वहगेह देह जानि, तजी नेहताई ॥४॥ अंतरंग वाद्य संग, त्यागि आत्मरंग पागि, शीलमाल अति विशाल, पहिर शोभनाई ॥५॥ यह नृप-सोपान-राज, मोक्षधाम चढ़न काज, ननसुग्व () निज गुनसमाज, केवलीयताई।मुन्दराद
प्रमाती। पोडशकारन सुहृदय, धारन कर भाई ! जिनते जगतारन जिन, होय विन्धराई ॥ टेक ॥ निर्मल अहान ठान, शंकादिक मल जधान, देवादिक विनय सरल भावते कराई ॥ १ ॥