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द्वितीय भाग ।
विनाशनं । तुम ज्ञान-वर्ग-जलवीच त्रिभुवन, कमलवत प्रतिभासनं || आनंद निजज अनंत अन्य, अर्चित संतत परनंये । बल अतुल कलिन स्वभावतें नहिं, खलित गुन अमिलित थये ॥ १ ॥ सब राग रुष इनि परम श्रवन स्वभाव धन निर्मल दशा । इच्छारहित भवहित खिरत, वच सुनत ही भ्रमतम नशा । एकान्त - गहन - सुदहन स्यात्पद, बहन मय निजपर दया । जाके प्रसाद विषाद विन, मुनिजन सपदि शिवपद लहा || २ || भूषन वसन सुमनादिविन तन, ध्वानमय मुद्रा दिपै । नासाग्र नयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै | पुनि वढ्न निरखत प्रशम जल, वरखत सुहरखत उर धरा । बुधि स्वपर परखत पुन्यआकर, कलिकलिल दुरखत जरा || ३ || इत्यादि बहिरंतर असाधारन, सुविभवनिधान जी । इन्द्रादिवंद पदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी ॥ मैं चिर दुखी. परचाहतें, तुम धर्म नियत न उर धरो ॥ परदेव सेव करी बहुत, नहिं काज एक तहां सरो ॥ ४ ॥ अव भागचन्दउदय भयो, मैं शरन आयो तुम तने । इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक बुध भने || परमाहिं इष्ट-अनिष्ट मति तजि, मगन निज गुनमें रहीं। हग-ज्ञान-वर संपूर्ण पाऊँ, भागचंदन पर वहीं ॥ ५ ॥
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