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द्वितीयभाग ।
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॥३॥ इत्यादिक स्वगुन अनन्ता । अन्तर्लक्ष्मी भगवंता । बाहिज विभूति बहु सोहै । वरनन समर्थ कवि को है ॥४॥ तुमवृच्छ अशोक सुस्वच्छ । सब शोकहरनको दच्छ। तहां चंचरीक गुंजारें। मानों तुम स्तोत्र उचारें
शुभ रत्नमयूख विचित्र । सिंहासन शोभ पवित्र । तह वीतराग छबि सोहै । तुम अंतरीछ मनमोहै ॥ ॥ वर कुन्दकुन्द अवदात। चामरव्रज सर्व सुहात तुम । ऊपर मघवा हारे । घर भक्ति भाव अघ टारे ||७|| मुक्ताफल माल समेत । तुम ऊर्जा छत्रत्रय से । मानों तारान्वित चन्द । त्रय मूर्ति घरी दुति वृन्द ||८|| शुभ दिव्य पह बहु बाजे | अतिशय जुत अधिक विराजै । तुमरो जस घोकै मानौं । त्रैलोक्यनाथ यह जानीं ॥१॥ हरिचन्दन सुमन सुहाये । दशदिशि सुगंधि महकाये ॥ अलिपुंज विगुंजत जामैं | शुभ दृष्टि होत तुम साम ॥१०॥भामंडल दीप्ति अखंड । छिप जात कोट मार्तंड | जग लोचनको सुखकारी । मिथ्यातमपटल निवारी ॥११॥ तुमरी दिव्यध्वनि गाजै । विनं इच्छा भविहित काजै । जीवादिक तत्त्वप्रकाशी। भ्रमतमहर सूर्यकलासी ॥ १२ ॥ इत्यादि विभूति अनंत । वाहिज अतिशय अरहंत | देखत मन भ्रमतम भागा। हित अहित ज्ञान उर जागा ||१३||तुम सब लायक उपगारी । मैं दीन दुखी संसारी । तातै सुनिये यह अरजी। तुम शरन लियो जि