________________
द्वितीयंभाग |
५७
राग गौरी
1
३१
. आनम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछू न सुहावै जब निज, आतम अनुभव आवै ॥ टेक ॥ जिनआज्ञाअनुसार प्रथम ही, तत्त्व प्रनीति अनावै । वरनादिक- रागादिकर्ते निज, चिन्न भिन्न फिर ध्यावै ॥ आनम० ॥ १ ॥ मतिज्ञान फरसादि विषय तजि आतम सम्मुख धावै । नय प्रमान निक्षेप सकल श्रुत, ज्ञानविकल्प नसावै |आतम० ॥ २॥ चिदहं शुद्धोऽहं इत्यादिक, आपमाहिं बुध आवै । तन
वज्रपात गिरतें हू, नेकु न चित्त बुलावै ॥ आतम०॥ ॥ ३ ॥ स्वसंवेद आनंद व अति, वचन को नहिं जावें । देखन जानन चरन तीन वित्र, इक स्वरूप बहरावै ॥ आतम० ॥ ४ ॥ चिनकर्ता चित कर्मभाव चित, परनति क्रिया कहावै । साधक साध्य ध्यान ध्येयादिक, भेद कछू न दिखावै ॥ आतम० ॥ ५ ॥ आत्मप्रदेश अदृष्ट तदपि, रसस्वाद प्रगट दरसावै । ज्यों मिश्री दीसत न अंधको, सपरस मिष्ट चखावै ॥ आतम० ॥ ६ ॥ जिन जीवनके, संसृत पारावार पार निकटावे । भागचंद ते सार अमोलक, परम रतन वर पावै ॥ आतम० ॥ ७ ॥