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जैनपदसंग्रह
विकसै, उपल नहिं विकसावना ॥ अहो ० ॥ ४ ॥ भागचंद विभाव ताजे, अनुभव स्वभावित भावना । या विन शरण न अन्य जगता- रन्यमें कहुँ पावना | अहो० ॥ ५ ॥
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राग काफी ।
ऐसे विमल भाव जब पावै, तब हम नरभव सुफल कहावै ॥ क ॥ दरशबोधमय निज आतम लखि, परद्रव्यनिको नहिं अपनावै । मोह-राग-रुप अहित जान ताज, झटित दूर तिनको छुटकावै ॥ 'ऐसे० ॥ १ ॥ कर्म शुभाशुभबंध उदयमं, हर्ष विषाद चित्त नहिं ल्यावै । निज-हित-हेत विराग ज्ञान लखि तिनसों अधिक प्रीति उपजावै ॥ ऐसे० ॥ २ ॥ विषय चाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुखदायक विधिबंध खिरावै । भागचन्द शिवसुख सब सुखमय, आकुलता • विन लखि चित चावै ॥ ऐसे० ॥ ३ ॥
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राग काफी ।
प्रभूपै यह वरदान सुपाऊँ, फिर जगकीचवीच नहिं आऊं ॥ टेक ॥ जल गंधाक्षत पुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुन्दर ल्याऊँ । आनंदजनक कनकभाजन धरि, अर्ध अनर्घ बनाय चढ़ाऊँ ॥ प्रभू पै० ॥ १ ॥