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'जैनपदसंग्रहलालच लागो, “पहुंच नहीं है जहँ 'जमकी ॥ महि"मा०॥३॥
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राग ईमन । धन धन श्रीश्रेयांसकुमारं । तीर्थदान करतार ! टेक ॥ प्रभु लखि जाहि पूर्वश्रुत आई, चित्त हरपाय उदार । नवधा भक्ति समेत इक्षुरस, प्रासुक दियो अहार ।। धन० ॥ १॥ रतनवृष्टि सुरगन तव कीनी, अमित अमोघ सुधार । कलपक्ष पहुपनकी वर्षा, जहँ अलि करत गुजार ॥ धन ॥२॥ सुरदुंदुभि सुन्दर आति बाजी, मन्द सुगंधि वयार। धन धन यह दाता इमि नभमें, चहुँदिशि होत उचार ॥ धन० ॥ ३॥ जस ताको अमरी नित गावत, चन्द्रोज्वल अविकार । भागचन्द लघुमति क्या वरने, सो तो पुन्य अपार ॥ धन० ॥४॥
ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो यसो ॥टेका तिन समस्त परद्रव्यनिमाही, अहंबुद्धि ताज दीनी ॥ गुन अनंत ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखि . लीनी ॥ ऐसे० ॥१॥ जे निजबुद्धिपूर्व रागादिक, सकल विभाव निवारै । पुनि अबुद्धिपूर्वकनाशनको, .' अपनें शक्ति सम्हारै ॥ ऐसे० ॥२॥ कर्म शुभाशुभ