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जैनपदसंग्रह -
जथारथ पायो, अब इच्छा नहिं अन कुमतनमें । भागचन्द अम्रतरस पीकर, फिर को चाहे विष निज मनमें ॥ वीतराग० ॥ ६ ॥
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राग दुमरी ।
वुधजन पक्षपात तज, देखो, साँचा देव कौन है इनमें || बुधजन० ॥ टेक ॥ ब्रह्मा दंड कमंडलधारि, स्वांत भ्रांत वश सुरनारिनमें। मृगछाला माला मौंजी पुनि, विषयासक्त निवास नलिनमें ॥ बुधजन ० ॥ १ ॥ शंभू खट्टाअंगसहित पुनि, गिरिजा भोगमगन निशदिनमें । हस्त कपाल व्याल भूषन पुनि, रुंडमाल तन भस्म मलिनमें || बुधजन० ॥ २ ॥ विष्णु चक्रधर मदनवानवश, लज्जा ताज रमता गोपिनमें । क्रोधानल ज्वाजल्यमान पुनि, तिनके होत प्रचंड अरिनमें ॥ बुधजन० ॥ ३ ॥ श्रीअरहंत परम वैरागी, दूषन लेश प्रवेश न जिनमें । भागचंद इनको स्वरूप यह, अब कहो पूज्यपनो है किनमें ! ॥ बुधजन० ॥ ४ ॥
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अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि, त्रिविध जीव परिनाम वखाने ॥ अति० ॥ टेक ॥ तीव्र कषाय उदयतै भावित, दर्वित हिंसादिक अघ ठाने । सो संक्लेश भावफल नरकादिक गति दुख भोगत अस