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________________ जैनपदंसंग्रह नर धार रे। रटि नाम राजुलरमनको, पशुबंध छोड़नहार रे॥ मेरे मन०॥ ४॥ . ७. राग सोरठ। भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर ॥टेक ॥ समुझि प्रभुके शरण आयो, मिल्यो ज्ञान वजीर ॥ भलो० ॥ १॥ जगतमें यह जनम हीरा, फिर कहां थो धीर । भली वार विचार छाँड्यो, कुमति कामिनि सीर ॥ भलो०॥ २ ॥धन्य धन्य दयाल श्रीगुरु सुमरि गुणगंभीर । नरक परतें राखि लीनों • बहुत कीनी भीर ॥ भलो० ॥३॥ भक्ति नौका लही भागनि, कितक भवदधिनीर। ढील अव क्यों करत भूधर, पहुँच पैली तीर। भलो०॥४॥ ८. राग सोरठ। . . सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी ॥टेक ॥ नरभव पाय विषय मति सेवो, ये दुरंगति अगवानी ॥ सुन० ॥ १॥ यह. भव कुल यह तेरी महिमा, फिर समझी जिनवानी। '१ साँझा २ सहाय. ३ कितना.
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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