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________________ द्वितीयभाग. १७ ताहि ले कर करमें जे, तीक्षण बुद्धि कुदारी ॥ समआराम० ३ निज शुद्धोपयोगरस चाखत, परममता न लगारी । निज सरधान ज्ञान चरनात्मक, निश्चय शिवमगचारी ॥ भागचंद ऐसे श्रीपति प्रति, फिर फिर ढोक हमारी ॥ समआरामचि ० ॥४॥ ३२. राग सोरठ । इष्टजन केवली म्हाकै इष्टजिन केवली, जिन सकल कलिमल दली ॥ टेक ॥ शान्ति छवि जिनकी विमल जिमि, चन्द्रदुति मंडली | संत-जन- मनके- कि- तर्पन सघन घनपटली ॥ ॥ इष्टजिन के० ॥ १ ॥ स्यात्पदांकित धुनि सुजिनकी, बदनतें निकली | वस्तुतत्त्वप्रकाशिनी जिमि, भानु किरनावली ॥ इष्टजिन० || २ || जासुपद अरविंदकी, मकरंद अति निरमली । ताहि धान करै नमित हर, -मुकुट-दुतिमनि अली ॥ इष्टजिन० || ३ || जाहि जजत चिराग उपजत, मोहनिद्रा दी । ज्ञानलोचनतें प्रगट लखि, धरत शिववटगली ॥ इष्टजिन० ॥ ४ ॥ जासु गुन नहिं पार पावत, बुद्धि ऋद्धि बली । भागचंद सु अलपमति जन, की तहां क्या चली ॥ इष्टजिन० ॥ ५ ॥ ३३. राग सोरठ । स्वामी मोह अपनो जानि तारौ, या विनती अव चित धारी ॥ टेक ॥ जगत उजागर करुनासागर, नागर नाम २
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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