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प्रथमभाग।
१०१ विन भोगभूनर, पशु त्रिपल्य प्रमानिये ॥४॥ अघवशकर नरकवसेरा, भुगतै तहँ कष्ट घनेरा। छेदै तिलतिल तन सारा, छेपै ३हपूतिमझारा ॥ मंझार वज्रानिल पचावे, धरहिं शूली ऊपरें । सींचे जु खारे वारिसों दुठ, कहें व्रण नीके करें। वेतरणिसरिता समल जल अति, दुखद तरु सेंबलतने । अति भीम वन असिक्रांतसम देल, लगत दुख देवै धनें ॥ ५॥ तिस भूमें हिम गरमाई, सुरगिरिसम असं गल जाई । तामें थिति सिंधुतनी है, यो दुखद नरक अवनी है। अवनी तहाँकीत निकसि, कवहूं जनम पायो नरो । सर्वांग सकुचित अति अपावन, जठर जननीके परो ॥ तहँ अधोमुख जननी रसांश,थकी जियो नवमास लों । ता पीरमें कोउ सीर नाही, सहै आप निकास लों ॥ ६ ॥ जनमत जो संकट पायो, रसनात जात न गायो । लहि वालपनै दुख भारी, तरुनापो लयो
१ भोगभूमिया मनुष्य और पशु । २ दुर्गधिके भरे तालाव । ३ फौई। ४ तलवारकी धार । ५ पत्ते । ६ लोहा । ७ पृथिवी ।