________________
जैनपदसंग्रह। नमें ॥ २॥ इस तनमें तूं बे, क्या गुन देख लुभाया। महा अपावन वे, सतगुरु याहि व. ताया ॥ सतगुरु याहि अपावन गाया, मलमूत्रादिकका गेहा । कृमिकुल-कलित लखत घिन आवै, यासों क्या कीजे नेहा ? ॥ यह तन पाय लगाय आपनी, परनति शिवमगसाधनमें । तो दुखदंद नशै सब तेरा, यही सार है इस तनमें ॥३॥ भोग भले न सही, रोगशोकके दानी । शुभगति रोकन बे, दुर्गतिपथअगवानी ॥ दुगतिपथअगवानी हैं जे, जिनकी लगन लगी इनसों । तिन नानाविधि विपति सही है, विमुख भया निजसुख तिनसों। कुंजर झेख अलि शर्लभ हिरन इन, एकअक्षवशें मृत्यु लही। यातें देख समझ मनमाहीं, भवमें भोग भले न सही.॥ ४ ॥ काज सरै तब बे, जब निजपद
आराधै। नशै भावलि बे, निरावाधपद लाधै। निरावाधपद लाधै तब तोहि, केवल दर्शन ज्ञान : १ हाथी । २ मछली । ३ भौंरा-भ्रमर । ४ पतंग । ५ एक एक इंद्रियके वशसे । ६ भवोंका समूह ।