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________________ प्रथमभाग । ९९. हम तो कबहूं न निजगुन भाये । तन निज मान जान तनदुखसुख में विलखे हरखाये । हम तो० ॥ टेक ॥ तनको गरन मरन लखित'नको, धरन मान हम जाये । या भ्रमभौर परे भवजल चिर, चहुंगति विपत लहाये | हम तो ० ॥ १ ॥ दरशबोधत्रत सुधा न चाख्यो, विविध विषय-विष खाये । सुगुरु दयाल सीख दइ पुनि पुनि, सुनि सुनि उर नहिं लाये ॥ हम तो ० ॥ २ ॥ बहिरातमता तजी न अन्तर -दृष्टि न है निज ध्याये | धाम - काम-धन- रामाकी नित, आश- हुताश- जलाये ॥ हम तो० || ३ || अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये | दौल चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया धाये ॥ हम तो० ॥ ४ ॥ ८९ १००. हम तो कबहूं न निज घर आये । परघर १ भावना की । २ उत्पन्न हुए । ३ आशारूपी अग्निमें ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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