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जैनपदसंग्रह
___ मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन
ओरी । मानले० ॥ टेक ॥ भोग भुजंगभोगसम जानो, जिन इनसे रति जोरी । ते अनंत भव भीम भरे दुख, परे अधोगति पोरी; बँधे दृढ पातकडोरी । मान० ॥ १॥ इनको त्याग विरागी जे जन, भये ज्ञानवृषधोरी। तिन सुख लह्यो अचल अविनाशी, भवफांसी दई तोरी; रमै तिनसँग शिवगौरी । मान० ॥२॥ भोगनकी अभिलाषहरनको, त्रिजग संपदा थोरी। यातें ज्ञानानंद दौल अब, पियौ पियूष कटोरी; मिटै भवव्याधि कठोरी ॥ मान० ॥३॥
- छोडिदे या बुधि भोरी, वृथा तनसे रति जोरी । छांड०॥ टेक ॥ यह पर है न रहै थिर पोषत, सकल कुमलकी झोरी । यासों. ममता कर अनादितें, बँधो कर्मकी डोरी, सहै दुख १ सर्पके फणकी समान । २ भयानक । ३ पौर।४ पापकी डोरमें।