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________________ प्रथमभाग। भानी । हे जिन० ॥१॥ सुप्त अनादि अविद्यानिद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी । खै सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुमवानी । हे जि०॥२॥ मंगलमय तू जगमें उत्तम, तुही शरन शिवमगदानी । तुवपद-सेवा परम औषधी, जन्मजरामृतगद हानी । हे जिनक ॥३॥ तुमरे पंजकल्यानकमाही, त्रिभुवन मोददशा ठानी। विष्णु, विदंवर, जिष्णु, दिगम्बर, वुध, शिव कह ध्यावत ध्यानी । हे जिन०॥४॥ सर्व दर्वगुनपरजयपरनति, तुम सुवोधमें नहिं छानी । तातें दौलदास उरआशा, प्रगट करो निजरससानी । हे जिन०॥५॥ हे मन ! तेरी को कुटेव यह, करनेविषयमें धावैहै। हे मन० ॥ टेक ।। इनहीके वश तू अनादितै, निजस्वरूप न लखावै है । पराधीन छिन छीन समाकुल, दुरगतिविपति चखावै है । हे १ जन्ममरणजरारूपी रोग । २ इन्द्रियोंके विषयमें ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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