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________________ (५२) गई सांजै, ततखिन पिरान दला है ॥ कोई० ॥२॥ विषयोंसे रागताई, ले जात नर्कमाई, कोई नहीं सहाई, काटें तहां गला है ॥ कोई० ॥३॥ वुधजनकी सीख लीजे, आतुरता त्याग दीजे, जलदी संतोप कीजे, इसमें तेरा भला है ॥ कोई० ॥४॥ _ (१२६) . चन्दजिन विलोकवेतै, फंद गलि गया। धंद सब जगतके विफल, आज लखि लिया ॥ चंद० ॥ टेक ॥ शुद्ध चिदानंद-खंध, पुद्गलके माहिं । पहिचान्या हममें हम, संशय भ्रम नाहिं । चंद० ॥ टेक ॥ सो न ईस सो नदास, सो नहीं है रंक । ऊंच नीच गोत नाहिं, नित्य है निशंक ।। चंद० ॥१॥ गंध वर्ने फरस स्वाद, वीस गुन नहीं। एक आतमा अखंड, ज्ञान है सही ।। चंद० ॥२॥ परकौं जानि ठानि परकी, बानि पर भया, परकी साथ दुनियांमैं, खेदकों लया॥चंद० ॥२॥ काम क्रोध कपट मान, लोभकों करा । . नारकी नर देव पशू होयके फिरा ॥ चंद० ॥४॥ ऐसे वखतके बीच ईस, दरस तुम दिया । मिहरवान होय दास आपका किया॥चंद०॥५॥जौलौं कर्म काटि मोख धास ना गया ।तौलौं बुधजनकौं शर्न राख करि मया॥ चंद०॥६॥ (१२७) . मद मोहकी शराब पी खराब हो रहा । बकता है वेहिसाव नां कितावका कहा ॥ मद्० । टेक ॥ देता नहीं - १प्राण ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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