________________
Sसारी।
चावै है। गुरु०॥१॥ पर सुभावको मोखा चाहै, अपना उसा बनावै है । सो तो कवहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है । गुरु० ॥२॥ खोटी खरी जस करी कुमाई, तैसी तेरै आवै है। चिन्ता आगि उठाय हियामैं, नाहक जान जलावै है ।। गुरु० ॥३॥ पर अपनावै सो दुख पावै, वुधजन ऐसे गाव है। परको त्यागि आप थिर तिष्टै, सो अविचल सुख पावै है ॥ गुरु०॥४॥
(१७)
राग-आसावरी। अरज ह्मारी मानो जी, याही मारी मानो, भवदधि हो तारना मारा जी ॥ अरज० ॥ टेक । पतितउधारक पतित पुकार, अपनो विरद पिछानो ॥ अरज० ॥१॥ मोह मगर मछ दुख दावानल, जनसमरन जल जानो । गति गति भ्रमन भँवरमैं डूवत, हाथ पकरि ऊंचो आनो ॥ अरज० ॥२॥ जगमैं आन देव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । वुधजनकी करुना ल्यो साहिब, दीजे अविचल थानो ॥ अरज० ॥३॥
(१८) - राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो।
तूकाई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै वुढ़ापो॥तू० ॥ टेक ॥ धंधामाहीं अंधा है कै, क्यों खोवै छै आपो रे ॥ तू० ॥ १॥ हिमत घटी थारी सुमत मिटी छै, भाजि गयो तरुणापो। जम ले जासी सब रह जासी, सँग जासी १ सरीखा।