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________________ चतुर्थभाग । १५३ चतुर छमी सन्तोषी, धरमी ते विरले संसार ॥ कीजे० ॥ १० ॥ ३२१ क्रोध कंपाय न मैं करौं, इह परभव' दुखदाय हो ॥ टेक | गरमी व्यापै देहमें, गुनसमूह जलि जाय हो ॥ क्रोध० ॥१॥ गारी दै माखो नहीं, मारि कियो नहिं दोर्य हो । दो करि समता ना हरी, या सम मीत न कोय हो । क्रोध० ॥२॥ नासै अपने पुन्यको, काटै मेरो पाप हो । ता प्रीतमसों रूसिकै, कौन सहै सन्ताप हो ॥ क्रोध० ॥३॥ हम खोटे खोटे कहैं, सांचेसों न विगार हो । गुन लखि निंदा जो करै, क्याः लावरसों रार हो । क्रोध० ॥ ४ ॥ जो दुरजन दुख दै नहीं, छिमा न है परकास हो । गुन परगट करि सुख करें, क्रोध न कीजे तास हो । क्रोध० ॥५॥ क्रोध कियेसों कोपिये, हमें उसे क्या फेर हो । सज्जन दुरजन एकसे, मन थिर कीजे मेरै हो । क्रोध०॥६॥ बहुत कालसों साधिया, जप तप संजम ध्यान हो । तासु परीक्षा लैनको, आयो समझो ज्ञान हो ॥ क्रोध०॥७॥ आप कमायो भोगिये, पर दुख दीनों झूठ हो । धानत परमानन्द मय, तू जगसों क्यों रूठ हो। क्रोध० ॥८॥ १ दो टुकड़े तो न किये । २ झूठेसे। ३ लड़ाई। ४ सुमेरुके समान।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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