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चतुर्थभाग !
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विकलप नेह || रे जिय० ॥ ३॥ क्रोध मद वल लोभ न्यारो, बंध मोख विहीन । राग दोष विमोह नाहीं, चेतना गुणलीन ॥ रे जिय० ॥ ४ ॥ फरस रस खुर गंध सपरस, नाहिं जामें होय । लिंग मारगना नहीं, गुणधान नाहीं कोय ॥ रे जिय० ॥ ५ ॥ ज्ञान दर्शन चरनरूपी, भेद सो व्योहार | करम करना क्रिया निहचै, सो अभेद विचार || रे जिय०|| ६ || आप जाने आप करके, आपमाहीं आप । यही व्योरा मिट गया तव, कहा पुन्यरु पाप ॥ रे जिय० ॥ ७ ॥ है कहै है नहीं नाहीं, स्यादवाद प्रमान । शुद्ध अनुभव समय द्यानत, करौ अम्रतपान ॥ रे जिय० ॥८॥ १६० । राग - आसावरी ।
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भाई ब्रह्मज्ञान नहिं जाना रे || भाई ० ॥ टेक ॥ सव संसार दुःख सागरमें, जामन मरन कराना रे || भाई ο ॥ १ ॥ तीन लोकके सब पुदगल तैं, निगल निगल उगलाना रे | छेर्दि डारके फिर तू चाखै, उपजै तोहि न ग्लाना रे ॥ भाई ० ॥ २ ॥ आठ प्रदेश विना तिहुँ जगमें, रहा न कोई ठिकाना रे । उपजा मरा जहां तू नाहीं, सो जाने भगवाना रे || भाई ० ॥ ३ ॥ भव भवके नख केस. नाका, कीजे जो इक ठाना रे । होंय अधिक ते गिरि सुमेरुतै, भाखा वेद पुराना रे ॥ भाई ० ॥ ४ ॥ जननी -पय जनम जनमको, जो तैं कीना पाना रे । सो तो
१ के वमन । २ स्तनका दूध ।