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. प्रथमंभाग ।
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॥ टेक ॥ परं पद- चाह- दाह -गदनाशन, तुम वचभेपज - पान सरस । शिवमग० ॥ १ ॥ गुणचितवत निज अनुभव प्रघटै, विघटै विधिठग दुविध तरस | शिवमग० ॥ २ ॥ दौल अवांची संपति सांची पाय र थिर राच सरस | शिवमग० ||३||
२६.
मेरी सुध लीजे रिपभस्वाम । मोहि कीजें शिवपथगाम ॥ टेक ॥ मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अव, तुम दुखमेटत पाधाम । मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुंगति विपतठाम । मेरी० ॥ १ ॥ विपयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान संपति ललाम | अथवा यो जड़को न दोष मम, दुखसुखता, परनतिसुकाम || मेरी ० ॥ २ ॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुरौनग्राम | परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुदाम || मेरी - || ३ || निर्विकार संपतिकृति
१ पुद्गलसम्बन्धी चाहका दाहरूपीरोग नाशकरनेके लिये दवाई | २ अवाच्य, जिसका वर्णन न हो सके । ३ गुणोंके समूह । ४ गुणोंकी माला ।