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________________ चतुर्थभाग । बन गये हो, हिरदै धखो विवेक ॥ जव० ॥२॥ केई भावें भावना हो, केई गहैं तप घोर । केई जमैं प्रभु नामको ज्यों, भाजें कर्म कठोर ॥ जव० ॥३॥ बहुतक तप करि शिव गये हो, वहुत गये सुरलोक । धानत सो पानी सदा ही, जयवन्ती जग होय ॥ जव०॥४॥ १३९ । राग-ख्याल । . . वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥ वे. ॥ टेक ॥ जिनसों मिलना फेरि विछुरना, तिनसों कैसी यारी । जिन कामोंमें दुख पाये है, तिनसों प्रीति करारी ॥ ३०॥१॥ वाहिर चतुर मूढ़ता घरमें, लाज सवै परिहारी । ठगसों नेह वैर साधुनिसों, ये बातें विसतारी ॥ ३० ॥२॥ सिंह डाढ़ भीतर सुख माने, अक्कल सर्व विसारी । जा तरु आग लगी चारौं दिश, वैठि रह्यो तिहँ डारी । वे० ॥३॥हाड़ मांस लोहकी थैली, तामें चेतनधारी। धानत तीनलोकको ठाकुर, क्यों हो रह्यो भिखारी ॥३०॥४॥ १४० । राग-विलावल । आतम काज सँवारिये, तजि विपय किलोलें ॥ आतम० ॥टेक ।। तुम तो चतुर सुजान हो, क्यों करत अलोलें ॥ आतम० ॥१॥ सुख दुख आपद सम्पदा, ये १ साधु ( सज्जन) पुरुपोंसे.२ डाली, शाखा.
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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