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________________ ६८ . जैनपदसंग्रह। ॥१॥तपतरु उपशम जल चिर सींच्यो, तापस शिवफल हेत । क्रोध अगनि छनमाहिं जरावै, पावै नरकनिकेत ॥ सबसौं० ॥२॥ सब गुनसहित गहत रिस मनमें, गुन औगुन कै जात । जैसे प्रानदान भोजन है, सविष भये तन घात ॥ सवसौं०॥३॥ आप समान जान घट घटमें, धर्ममूल यह वीर । द्यानत भवदुखदाह बुझाच, ज्ञानसरोवरनीर ॥ सवसौं०॥४॥ १३३ । राग-आसावरी । गहु सन्तोष सदा मन रे ! जा सम और नहीं धन रे ॥ गहु० ॥ टेक ॥ आसा कांसा भरा न कवहूं, भर देखा बहुजन रे। धन संख्यात अनन्ती तिसना, यह वानक किमि वन रे ॥ गहु० ॥१॥जे धन ध्यावें ते नहिं पावें, छांडै लगत चरन रे । यह ठगहारी साधुनि डारी, छरद अहारी निधन रे ॥गहु०॥२॥ तरुकी छाया नरकी मायां, घटै बदै छन छन रे। धानत अविनाशी धन लागें, जाण त्यागें ते धन रे ॥ गहु० ॥३॥ . १३४ । राग-आसावरी । रे भाई ! मोह महा दुखदाता ॥ टेक ॥ वसत विरानी अपनी मानें, विनसत होत असाता. ॥ रे भाई० . ॥१॥जास मास जिस दिन छिन विरियाँ, जाको
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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