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________________ जैनपदसंग्रह | ९९ प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ श्रुति करि सुखी दुखी निंदातें, तेंरैं समता भाय ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ जो तुम ध्यावै थिर मन लावै, सो किंचित् सुख पाय । जो नहिं ध्यावै ताहि करत हो, तीन भवनको राय ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ अंजन चोर महाअपराधी, दियो स्वर्ग पहुँचाय । कथानाथ श्रेणिक समदृष्टी, कियो नरक दुखदाय || प्रभु० ॥ ३ ॥ सेव असेव कहा चलै जियकी, जो तुम करो सु न्याय । द्यानत सेवक गुन गहि लीजै, दोप सबै छिटकाय ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ १०० । राग-विलावल | ५२ प्रभु तुम सुमरनहीमें तारे ॥ टेक ॥ सूअर सिंह नौले बानरने, कहौ कौन व्रत धारे ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ सांप जाप करि सुरपद पायो, स्वान श्याल भय जारे । hi वोकै गज अमर कहाये, दुरगति भाव विदारे ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ सील चोर मातंगें जु गनिका, बहुतनिके दुख टारे । चक्री भरत कहा तप कीनौ, लोकालोक निहारे ॥ प्रभु० ॥ ३ ॥ उत्तम मध्यम भेद न कीन्हों, आये शरन उवारे । द्यानत राग दोष विन स्वामी, पाये भाग हमारे ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ १ न्योला । २ मेंडक । ३ वकरा | ४ चांडाल ।'
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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