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जैनपदसंग्रह।
९५। आतमरूप सुहावना, कोई जानै रे भाई। जाके जानत पाइये, त्रिभुवनठकुराई ॥टेक ॥ मन इन्द्री न्यारे करौ, मन और विचारौ । विपय विकार सवै मिटैं, सहजै सुख धारौ ॥ आतम० ॥१॥ बाहिरतें मन रोककैं, जब अन्तर आया। चित्त कमल सुलख्यो तहाँ, चिनमूरति पाया ॥ आतम० ॥२ ॥ पूरक कुंभक रेचतें, पहिले मन साधा । ज्ञान पवन मन एकता, भई सिद्ध समाधा ॥ आतम०॥३॥ जिनि इहि विध मन वश किया, तिन आतम देखा । घानत मौनी व्है रहे, पाई सुखरेखा ॥ आतम०॥४॥
९६ । राग-सोरठ।। भाई! ज्ञानका राह दुहेला रे ॥भाई॥टेक ॥मैं ही भगत बड़ा तपधारी, ममता गृह झकझेला रे॥ भाई. ॥१॥ मैं कविता सव कवि सिरऊपर, वानी पुदगलमेला रे। मैं सब दानी मांगे सिर धों. मिथ्याभाव सकेला रे॥ भाई०॥२॥ मृतक देह वस फिर तन आऊं, मार जिवाऊं छेलारे। आप जलाऊ फेर दिखाऊं, क्रोध लोभतें खेला रे॥ भाई॥३॥वचन सिद्ध भाषै सोई है,प्रभुता वेलन वेला रे ।धानत चंचल चित पारा थिर, करै सुगुरुका चेला रे॥ भाई.॥४॥ १ कठिन-दुर्धर ।