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चतुर्थभाग ।
१९ । राग - रामकली ।
हम न किसीके कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ॥ टेक ॥ तनसंबंधी सब परवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥ हम० ॥ १ ॥ पुन्य उदय सुखका बढ़वा - रा, पाप उदय दुख होत अपारा । पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सव देखन जाननहारा || हम० ॥ २ ॥ मैं तिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला । थिति पूरी करि खिर खिर जांहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं ॥ हम न० ॥ ३ ॥ राग भावतें सजन मानैं, दोप भावतें दुर्जन जानैं । राग दोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतनपदमाहीं ॥ हम न० ॥ ४ ॥ २० | राग - पंचम |
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भम्यो जी भम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी ॥ टेक ॥ पुदगल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायो जी ॥ भम्यो० ॥ १ ॥ मनवचकाय जीव संहारे, झूठो वचन बनायो जी। चोरी करके हरप बढ़ायो, विषयभोग गरवायी जी ॥ भम्यो० ॥२॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी । गरम जनम नरभव दुख देखे, देव मरत विललायो जी | भम्यो० ॥ ३ ॥ द्यानत अव जिनवचन सुनै मैं,
१ घाते । २ साधारण वनस्पति ।