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जैनपदसंग्रह। ॥ चल० ॥ ४ ॥ केवलज्ञान आदि गुण प्रगटे, नेकु न मान कियारी ॥ चल० ॥५॥ प्रभुकी महिमा प्रभु न कहि सकैं, हम तुम कौन विचारी ॥चल०॥६॥ द्यानत नेमिनाथ विन आली, कह मोकों को तारी ॥ चल०॥७॥
१४ । राग-सोरठ कड़खा। . रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुँगति विप, आज जि-' नराज-तुम शरन आयो ॥ टेक ॥ सह्यो दुख घोर, नहिं छोर आवै कहत, तुमसौं कछु छिप्यो नहिं तुम बतायो ॥ रुल्यो० ॥१॥ तु ही संसारतारक नहीं. दूसरो, ऐसो मुह भेद न किन्ही सुनायो । रुल्यो. • ॥२॥ सकल सुर असुर नरनाथ वंदत चरन, नामिनन्दन निपुन मुनिन ध्यायो ॥ रुल्यो० ॥३॥ तु ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ माग अव दरश पायो ॥ रुल्यो० ॥४॥ सिद्ध हौं शुद्ध हौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहु गुणनि गायो ॥ रुल्यो० ॥५॥ सर्व चिन्ता गई वुद्धि निर्मल भई, जब हि चित जुगलचरननि लगायो ॥ रुल्यो० ॥६॥ भयो .निहचिन्त धानत चरन शने गहि, तार अब नाथ तेरो कहायो | रुल्यो० ॥७॥