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________________ ४८ जैनपदसंग्रह आदि प्रजा प्रतिपाली, सकल जननकी आरति । टाली ॥ आरती० ॥ १॥ वांछापूरन सबके खामी, प्रगट भये प्रभु अंतरजामी ॥ आरती० ॥२॥ कोटभानुजुत आभा तनकी, चाहत चाह मिटै नर्हि तनकी ॥ आरती० ॥३॥ नाटक निरखि परम पद ध्यायो, राग थान . वैराग उपायो॥ आरती० ॥ ४॥ आदि ज.. गतगुरु आदि विधाता, सुरंग मुकति मारगके दाता ॥ आरती० ॥ ५॥ दीनदयाल दया अब कीजे, भूधर सेवकको ढिग लीजे॥ आरती० ॥६॥. . . . . . . . . . : ... ६९. राग सलहामारू। . . . सुनि सुनि हे साथनि! म्हारे मनकी बात। सुरति सखीसों सुमति राणी यों कहै जी । बीयो है साथनि मारी ! दीरघकाल, म्हारो सनेही म्हारे घर ना रहै जी ॥१॥ना व. रज्यो रहै साथनि म्हारी चेतनराव, कारज .. अधम अचेतनके करै जी। दुरमति है साथनि म्हारी जात कुजात, सोई चिदातम पियको
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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