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________________ जैनपदसंग्रह ५१. राग काफी । १. प्रभु गुन गाय रे, यह औसर फेर न पाय रे ॥ ट्रैक ॥ मानुष भव जोग दुहेला, दुर्लभ संतसंगति मेला । सब बात भली बन आई, अरहन्त भजौ रे भाई ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ पहलै चित- चीरे सँभारो, कामादिक मैल उतारो। फिर प्रीति फिटकरी दीजे, तब सुमरन रंग रँगीजे ॥ प्रभु०॥ श धन जोर भरा जो कूवा, परवार बढ़ें क्या हुवा | हाथी चढ़ि क्या कर लीया, प्रभु नाम विना धिक जीया ॥ प्रभुः ॥ ३ ॥ यह शिक्षा है व्यवहारी निचैकी साधनहारी । भूधर पैड़ी पग धरिये, तब चढ़नेको चित करिये ॥ प्रभुः ॥ ४ ॥ · ५२. राग : हागीर कल्याण ।, : सुनि सुजान ! पाँचों रिपु वश करि, सुहित करन असमर्थ अवश करि ॥ टेक ॥ जैसें जड़ खखौरको कीड़ा, सुहित सम्हाल सधैं नहिं फँस करि ॥ सुनि० ||१|| पांचनको मुखिया मन चंचलः पहले ताहि पकर रस (?) कस करि । समझ देखि १ वस्त्र. २. पांचोंइन्द्री ३ कफः : ३६ ·
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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