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________________ जैनपदसंग्रह ॥ २॥ कुशलवृक्ष दल उलास, इहि विधि बहु गुणनिवास, भूधरकी भरहु आस, दीन दासके सो॥ पारस० ॥३॥ ४८. राग धनासरी। ... शेष सुरेश नरेश. र तोहि पार न कोई पावै जू ॥ टेक ॥ काँपै नपत व्योम विलसतसौं, को तारे गिन लावै जू ॥ शेप०॥ १॥ कौन सुजान मेघ वृंदनकी, संख्या समुझि सुनावै जू॥ शेष० ॥२॥ भूधर सुजस गीत संपूरन, गनपति भी नहिं गावै जू॥ शेष०॥३॥ ४९. राग रामकली। आदि पुरुष मेरी आस भरोजी। औगुन मेरे माफ करोजी॥टेका।दीनदयाल विरद विसरोजी, कै विनती मोरी श्रवण धरोजी॥१॥ काल अनादि वस्यो जगमाही, तुमसे जगपति जानें नाहीं । पाँय न पूजे अन्तरजामी, यह अपराध क्षमा कर स्वामी ॥ आदि० ॥२॥ भक्ति प्रसाद परम पद है है, बंधी बंध दशा मिट जै है। १ किससे? २ आकाश. ३ बिलस्तसे. ४ गणधर..
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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