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________________ ४६ 1 यह स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन की विवेचना है यह उक्त सभी वस्तुओं मे अगुरुलघुगुण के शक्त्यशो की उक्त क्रम सहित छह भेद रूप हानि इस हानि के पश्चात् छह भेदरूपवृद्धि, इस वृद्धि के पश्चात् फिर हानि और इस हानि के 'पश्चात् भी फिर वृद्धि इस प्रकार सदा काल स्वत प्रतिनियत रूप में प्रवर्तमान है | इसक। फलितार्थ यह हुआ कि प्रत्येक वस्तु के उक्त प्रकार से होने वाले इस परिणमन के परनिपेक्ष अर्थात् केवल निजी स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव के आधार पर स्वत होते रहने के कारण. यह सतत समान क्रम से ही हुआ करता है किसी भी वस्तु के अनादि से अनन्त काल तक इसके उक्त क्रम मे कभी न तो वैषम्य हुआ और न हो सकता है । इसके अतिरिक्त जितने भी गुण परिणमनरूप स्वभाव परिणमन होते है चे तथा सभी प्रकार के द्रव्यपरिणमन इन्हे स्वपरसापेक्ष परिणमन जानना चाहिये | दोनों ही परिणमनो में कार्यकारणभाव की विवेचना का आधार वस्तु स्वभावगत उक्त स्वसापेक्ष परनिरपेक्ष परिणमन में कार्यकारणभाव की विवेचना का आधार केवल वस्तुस्वभाव और उसका उक्त षड्गुण हानि वृद्धि रूप परिणमन इन दोनो मे पाया जाने चाला उपादानोपादेय भाव ही है क्योकि इस परिणमन मे पायी जाने वाली परनिरपेक्षता की वजह से कार्य - कारणभाव का दूसरा आधार निमित्तनैमित्तिकभाव यहा पर सम्भव नही है । इसलिये कर्तृ कर्मभाव और आधाराधेयभाव आदि सम्बन्ध को बतलाने वालो कारक व्यवस्था भी यहा पर केवल उपादानोपादेयभाव के आधार पर ही स्वीकृत करने योग्य है । इस तरह जब स्वसापेक्ष परनिरपेक्ष परिणमन मे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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