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टीकार्यगाथा मे समय शब्द से सामान्यतया सभी पदार्थों को ग्रहण किया गया है, क्योकि जो अखण्ड रूप से अपने गुण और पर्यायो मे रह रहा है वह समय कहलाता है ऐसी ही निरुक्ति यहा समय शब्द की स्वीकार की गयी है । इसलिये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव द्रव्यो के रूप में अवस्थित सम्पूर्ण लोक मे जितनी संख्या मे जो कोई पदार्थ विद्यमान हैं वे सव पदार्थ एक तरफ तो अपने-अपने द्रव्य मे अन्तर्मग्न और अनन्त सख्याक स्वकीय धर्मों के समूह से अभिन्न हो रहे हैं तथा दूसरी ओर वे सभी पदार्थ एक-दूसरे पदार्थ से बिल्कुल भिन्नता को प्राप्त हो रहे है, इसके अतिरिक्त यद्यपि वे सभी पदार्थ एकक्षेत्रावगाही हो रहे हैं फिर भी वे कभी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते और चूकि पररूपता को वे कभी प्राप्त नही होते, इसलिये अपना-अपना पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व कायम रखते हुए वे सव पदार्थ मिलकर अपनी अनन्त सख्या को अक्षुण्ण रक्से हुए हैं । अर्थात् उल्लिखित धर्मादि सभी पदार्थ जितनी सख्या मे अनादि काल से अवस्थित होकर चले आ रहे है अनन्त काल तक उनकी उतनी ही संख्या अक्षुण्ण बनी रहने वाली है। इस तरह जैसे टाकी से ही उत्कीर्ण कर दिये गये हो-ऐसे रहते हुए तथा सम्पूर्ण विरुद्ध और अविरुद्ध कार्यो मे हेतु बन कर विश्व को सहायता पहुँचाते हुए वे सब पदार्थ नियम से अपने आप मे अखण्ड और अपने अस्तित्व में आत्मनिर्भर होकर ही सौदर्य को प्राप्त हो रहे है। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने पृथक्-पृथक् स्वरुप के आधार पर सत्ता को प्राप्त होकर लोक मे अवस्थित हो रहे हैं । यदि इस प्रकार से पदार्थों की व्यवस्था स्वीकार नही कि जाती है तो सम्पूर्ण पदार्थों मे परस्पर सकर हो जाने का तथा आदि पद से नवीन पदार्थों की