________________
मैं तो किसी के साथ भी चर्चा का अत्यन्त विरोधी था क्योंकि मैं जानता था कि विद्वानो की कषाय पूर्ण भावना चर्चा को सफल नहीं होने देगी। यही कारण था कि करीब सन् १९६१ के मध्य जैन संघ मथुरा की कार्यकारिणी की जो बैठक होटल शाकाहार दिल्ली मे हुई और जिसमे पं० राजेन्द्र कुमार जी मथुरा, प० फूलचन्द्र जी वाराणसी और मैं भी सम्मिलित हुए थे, उस बैठक के अवसर पर जब पं० राजेन्द्र कुमार जी और प० फूलचन्द्र के मध्य चर्चा की बात चली तो मैंने दृढता के साथ उसका विरोध किया था।
यद्यपि उस समय मेरो लेखमाला की शुरूआत ही थी, लेकिन जब उस लेखमाला का जैन गजट मे प्रकाशन बन्द हो गया और प० फूलचन्द्र जी ने पुन चर्चा करने का मुझसे अनुरोध किया और विश्वास दिलाया कि उनकी ओर से चर्चा वीतराग भाव से तत्त्व फलित करने की दृष्टि से ही होगी तो मै तैयार हो गया तथा जब मेरे व प० फूलचन्द्र जी के हस्ताक्षरो से एक वक्तव्य चर्चा करने के उद्देश्य से समाचार पत्रो मे प्रकाशित हुआ तो उसे लक्ष्य मे रखकर श्री १०८ आचार्य शिव सागर के तत्त्वावधान मे जयपुर (खानिया) मे तत्त्व चर्चा का आयोजन ब्र० सेठ हीरालाल जी पाटनी निवाई वालो के आर्थिक सहयोग से ब्र० लाडमल जी जयपुर वालो ने किया और अक्टूबर सन् १९६३ मे वह चर्चा जयपुर (खानिया) मे की गई। दु.ख की बात यह रही कि जैसी मेरी आशका थी, चर्चा प्रारम्भ होने से पूर्व सोनगढ ने चालबाजी से काम लिया और प० फूलचन्द्र जी उस बहाव मे बहकर चर्चा के मूल आधार से पीछे हट गये जो उन्होने स्वय मेरे समक्ष प्रस्तुत किया था, तब जिस रूप मे बह चर्चा हुई बह समाज के सामने है।