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अनादि से है, परन्तु विवक्षित वस्तु मे विवक्षित परिणमन, जो कि कार्य कहलाता है, तभी उत्पन्न होना है जब वह वस्तु उस विवक्षित परिणमन की उत्पत्ति के क्षण से अव्यवहितपूर्वक्षणवर्ती परिणमन मे पहुँच जाती है। ..(१) ख-कार्य से अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती परिणमन मे वस्तु के पहुँच जाने पर वह वस्तु उस परिणमनरूप कार्य की समर्थ उपादान कहलाने लगती है क्योकि तब उस वस्तु मे वह कार्य नियम से उत्पन्न होता है।
(१) ग-चूकि वस्तु का यथायोग्य स्वभाव अथवा विभावरूप परिणमन प्रतिक्षण हुआ करता है अत यह मानना उचित है कि काल के भूत, वर्तमान और भविप्यत् जितने अविभागीक्षण सभव हो उतने ही परिणमन प्रत्येक वस्तु के नियत हैं और प्रत्येक वस्तु अपने परिणमन स्वभाव के वल पर परिणमन करती हुई अर्थात् भविष्यत् से वर्तमान होती हुई भूत का रूप धारण करती जा रही है तथा यह प्रवाह अनन्त काल तक इसी रूप मे चलता जायगा।
(१) घ-पर्यायो ( परिणमनो ) के उक्त प्रवाह मे जिस वस्तु की जो भविष्यत् पर्याय जिस क्षण मे वर्तमानता (व्यक्तता) को प्राप्त होती है उस वस्तु की वह पर्याय उस क्षण मे अपनी अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याय विशिष्ट उसी वस्तु का कार्य कहलाती है और कार्यरूप उस पर्याय से विशिष्ट वही वस्तु उसी क्षण मे उस कार्यरूप पर्याय से अव्यवहित उत्तरक्षणवर्ती पर्याय का उपादान कहलाती है।
इस प्रकार कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध मे प० फलचन्द्र की दृष्टि के अनुसार निम्नलिखित सिद्धान्त फलित होते है
क-प्रत्येक वस्तु मे पर्याय या परिणमन रूप कार्य की