SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पक्ति १६ ६ १७३ ११ १७७ १-१२ पृष्ठ १७७ १७७ १७८ १७८ १८७ १८७ १० १९४ १६६ ५ १२ १४ १६ ७ & २० १५ ३ १६६ १८ १६ २० २०० ४-५ २०२ ११ २०४ ४ २१० २१० २१२ १ २५ १८ शुद्धि अशुद्धि नयाश्रित द्वाश्रित प्रदेशका प्रदेशवान प्रदेश और प्रदेश वान गाथा न० २५, २६ गाथा न०२०, २१, २२,२३ २७, २८, २९, ३० २४, २५ एव एय सक्का सत्तो पाये जाने वाले पाये जाने वाले सयोग तथा सयोग के आधार पर पाये जाने वाले इनमे केवल इतना ही अन्तर स्वतंत्र आत्मा कल्याण आत्म ज्ञान मे मिथ्या का ब द्वदशा का सद्भूत बद्धता सयोग पर अपने आप समाज करने यथा सभव मे पर जीव के उपयुक्ताकाररूप ३८१ इसदतन था क्रम से व्यवहार आदि सम्यक् चारित्र केवल तादात्म्य और सयोग मे इतना ही अन्तर है कि आत्मकल्याण आगम ज्ञान मे मिथ्या या बद्ध दशा सद्भूत बद्धता रूप सयोग पर यह अपने आप समाप्त करने यथा सभव पर होने वाली जीव के उपयुक्ताकार रूप इरादतन मे यथाक्रम से व्यवहार सम्यक् चारित्र '
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy