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________________ ३५४ उक्त स्वभाव आदि सभी के समवाय को कारण मानना असगत है क्योकि प्रत्येक द्रव्य का प्रतिक्षण जो षड्गुण हानि वृद्धि रूप स्वप्रत्यय परिणमन हो रहा है उसमे निमित्तो को कारणता प्राप्त नहीं है। यदि उस परिणमन मे भी निमित्तो को कारण माना जाय तो फिर उसका स्वप्रत्ययपना ही समाप्त हो जायगा जिससे आगम मे प्रदर्शित परिणमन के स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो भेदो की व्यवस्था ही भग हो जायगी। अर्थात् तब सभी परिणमन स्वपरप्रत्यय ही सिद्ध होगे कोई भी परिणमन स्वप्रत्यय सिद्ध नही होगा। यद्यपि १० फूलचन्द्र जी ने जैनतत्त्वमीमासा के निमित्त कारण की स्वीकृति नामक प्रकरण मे पृष्ठ ४२ पर यह बतलाया है कि "वस्तु की शुद्ध पर्याय परनिरपेक्ष (केवल स्वप्रत्यय) होते हुए भी काल निमित्तक तो वह है ही" परन्तु इस विषय में मैं पहले बतला चुका है कि काल किसी भी वस्तु के किसी भी परिणमन मे निमित्त नही होता है। अर्थात् परिणमन तो वस्तु का अपने-अपने प्रतिनियत कारणो के बल पर ही होता है केवल इतना अवश्य है कि काल उस परिणमन का समय, आवली, मुहूर्त, घडी, घण्टा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष आदि के रूप मे विभाजन मात्र करता रहता है और यदि किसी कार्य के साथ काल का अन्वय व्यतिरेक घटित होता हो तो उस कार्य की उत्पत्ति मे काल को निमित्त मानने भी कोई आपत्ति नही है परन्तु स्वप्रत्यय परिणमन मे काल के अन्वयव्यतिरेक के घटित होने की कभी सम्भावना नही है। इस विषय पर आगे विस्तार के साथ प्रकाश डाला जायगा।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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