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"ऐसे कथन द्वारा निश्चयार्थ का ज्ञान कराना यह मुख्य इष्टार्थ है, क्योकि यह वास्तविक है और इस द्वारा निमित्त (व्यवहार हेतु) का ज्ञान कराना यह उपचरित इष्टार्थ है क्योकि इस कथन द्वारा कहा कौन निमित्त है इसका ज्ञान हो जाता है" परन्तु इससे वे क्या अभिप्राय लेना चाहते हैं इसे उन्होने स्पष्ट नही किया है। यदि कहा जाय कि ऐसे कथन से निश्चय स्वरूप उपादान कर्ता रूप इष्टार्थ का बोध होता है तो यह भी असगत है क्योकि यह अनुभवगम्य नहीं है और यदि इस तरह उपादान कर्ता का बोध होने लग जावे तो फिर उपादान का अलग से कथन करने की क्या आवश्यकता रह जाती है ? दूसरी वात यह है कि ऐसा कोई नियम नही कि उक्त प्रकार निमित्त परक कथन से निश्चय स्वरूप उपादान कर्ता- रूप इष्टार्थ का बोध कराना अनिवार्य रूप से आवश्यक है । इस प्रकार यही मानना श्रेयस्कर है कि कुम्भकार शब्द लक्ष्यार्थ से समन्वित निमित्त कर्तृत्व (सहायक कर्तृत्व) रूप अपने अभिधेयार्थ का ही प्रतिपादन करता है और बोध भी इसी का होता है। इस प्रकार कुम्भ के निर्माण मे कुम्भकार के निमित्त कर्तृत्व की उतनी उपयोगिता सिद्ध हो जाती है जितनी कि मिट्टी के उपादान कर्तृत्व की सिद्धि होती है कारण कि कुम्भकार के निमित्त हुये बिना मिट्टी का घटरूप परिणमन होना असम्भव ही रहा करता है और यह अनुभवगम्य ही है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि कुम्भकार मे मिट्टी की तरह घट का उपादान कर्तृत्व तो नही है फिर भी घट के निर्माण मे सहयोग रूप निमित्त कर्तृत्व तो है ही। इस तरह प० फूलचन्द्र जी का निमित्त कर्तृत्व को कल्पित अर्थात् अभावरूप मानकर उसके प्रतिपादक वचन को निरर्थक (कथनमात्र) मानना असगत ही है।