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है तथा सम्यक् प्रकृति कर्म के उदय के साहचर्य मे चौथे गुणस्थानवी जीव के तो सम्यग्मिय्यात्व कर्म के समान अनन्तानुबन्धी कपाय को छोडकर गेप तीनो ही कपायो का उदय रहा करता है, पचम गुणस्थानवर्ती जोव के अनन्तानुवन्धी और अप्रत्याच्यानावरण कपायो को छोटकर शेप दो कपायो का उदय रहा करता है व छठे प्रमत्तविरत तथा सातवें स्वस्थानाप्रमत्तइन दोनों गुणस्थानो मे रहने वाले जीवो के अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याम्यानावरण-इन तीनो कपायो को छोड कर केवल सज्वलन कपाय का ही उदय रहा करता है । यद्यपि सम्यक् प्रकृति कर्म का उदय समाप्त हो जाने पर अर्थात् सम्पूर्ण दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही जीव घेणी माडता है यानि क्रमश अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रुप आत्म परिणामो मे जीव प्रवृत्त होता है लेकिन अघ.करण परिणामो के स्थानभूत सातवें सातिशय अप्रमत्त नामक गुणस्थान मे, अपूर्वकरण परिणामो के स्थानभूत आठवे अपूर्वकरण नामक गुणस्थान मे और अनवृत्तिकरण परिणामो के स्थानभूत नववें अनवृत्तिकरण नामक गुणस्थान मे तथा सूक्ष्मसापराय नामक दशम गुणस्थान मे रहने वाले जीवो के भी सज्वलन कपाय का उत्तरोत्तर मन्द, मन्दतर और मन्दतम उदय रहा करता है। इस तरह यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि उक्त चारो कपाये ही यथायोग्य गुणस्थानो मे उदय की प्राप्त होती हुई यथासम्भव कर्मों के स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध की कारण होती हैं तथा दर्शन मोहनीय कर्म उक्त कर्म वन्धो का साक्षात् करण न होकर - यथास्थान उक्त कपायो को प्रभावित करता हुआ परम्परया ही कारण होता है।