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________________ Pos भी कार्यकारिता के यि ओर वर के नियमेन मी पाहिये। अपरजीव हो मुक्ति प्राप्त करता है, पनि पर आत होने के लिये उसे जो भी पुराना काव्य होता है फिर भने दी १०० जगह और उतरे पक्षीजन हम बात को स्वीकार करने के लिये तैयार न हो । निमितकरण और सम्बन्ध में एव यह भी कही जाती है कि कार्यसिद्धि जोधन मिलते है सो कार्यमिति के निये जो निमनमा अनिवार्य से उपयोग किया जाता है तथा प० पुलचन्द्र जी आदि भी जो कार्यविधि की प्रक्रिया से हते नहीं दी तरह मोक्ष प्राति के मे भी आगम में जो व्यवहाररत्नत्रय का विस्तार के साथ सर्व उत्नेव मिलता है वह मे उपकार्यापकाना का ग्रन्थो के सेवन और पठ-पाठन का तथा राग-मय वृत्ति और हिसादि प्रवृति के त्याग का जो महत्व प्रस्थापित है व प० ननन्द्र जी आदि भी जो इन प्रक्रिया को अपनाये हुए हैं, तो क्या यह सब मिथ्या ही है। अथवा इसका कोई अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष तर्क और आगम सम्मत आधार है-इस पर भी प० पुराचन्द्रजी आदि को विचार करना चाहिये । 7 व्यवहाररत्नत्रय की उपयोगिता के सम्बन्ध में इस तरह भी विचार किया जा सकता है और जैसा विचार पूर्व में किया भी जा चुका है कि जीव अनादिकाल से काम, क्रोध, मोह आदि रूप जो परिणति कर रहा है वह उसकी विभावपरिणति
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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