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________________ २६० ले जाता है। यदि कदाचित् कोई ड्राइवर जाने-अनजाने उक्त व्यवस्था का उल्लघन करता है तो भयकर दुर्घटनायें भी हो जाया करती है। यह सव एक पदार्थ के सहयोग से दूसरे पदार्थ मे परिणमन होने की बात नही तो फिर क्या है ? बात वास्तव में यह है कि एक पदार्थ के परिणमन मे दूसरे पदार्थ के साथ निमित्तनैमित्तिक भावरूप कार्यकारणभाव की आवश्यकता लोक मे प्रत्येक व्यक्ति के सामने सतत रहा करती है। क्या यह कहा जा सकता है कि जितनी लोक सचालन और जीवन सचालन की व्यवस्थायें बनी हुई हैं 'या बनायी जाती हैं या जो परमार्थ से सम्बन्ध रखने वाली धर्म-अधर्म, पूण्य-पाप, नीति-अनीति आदि की व्यवस्थायें बनायी गयी हैं वे सब उपादानकारण के अधीन होकर भी निमित्तकारण के अधीन नही है ? मैं प० फूलचन्द्रजी और पं० जगन्मोहनलालजी से पूछना चाहता हूँ कि जीव की परिणति जो क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि रूप हुआ करती है अथवा उसकी जो हिंसा आदि पापरूप प्रवृत्ति हुआ करती है इन सब मे क्या पुद्गल कर्म तथा नोकर्म निमित्त नहीं हुआ करते हैं ? और क्या इन्हे जीव की केवल स्वाभाविक अर्थात् केवल स्वप्रत्यय परिणतियो का रूप ही मान लिया जावे ? यदि दोनो विद्वान इन्हे केवल स्वप्रत्यय परिणतियाँ ही मानते हैं तो उनकी यह भ्रान्त धारणा है । एक बात यह भी विचारणीय है कि जीव का सचेतन-अचेतन विविध प्रकार के पदार्थों मे जो अहकार या ममकार होता है उसका अवलम्बन ये सब पदार्थ ही हुआ करते हैं। उक्त दोनो विद्वानो का इन बातो पर लक्ष्य नही पहुँच रहा है-यह महान आश्चर्य और दुख की बात है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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