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स्वभाव परिणमन करना न हो तो न तो उसमें स्वभावत' ही परिणमन हो सकता है और न पर वस्तु ही उसे परिणमित करा सकती है, परन्तु उम परिणमनशील वस्तु का एक परिणमन न तो ऐसा होता है जो स्वभावत ही हुआ करता है जिसे स्वप्रत्यय परिणमन कहते हैं ओर एक परिणमन ऐसा होता है जो अन्य वस्तु का सहयोग मिलने पर होता है जिसे स्वपरप्रत्यय परिणमन कहते हैं । इस तरह स्वपरप्रत्यय परिणमन मे स्व अर्थात् उपादानकारण के साथ पर अर्थात् निमित्त कारण की भी नियामकता सिद्ध हो जाती है । अर्थात् परिणमन स्वप्रत्यय अथवा स्वपर प्रत्यय तो होता है लेकिन परप्रत्यय कदापि नही होता है ।
६- ५० जमन्मोहनलाल जी ने अपने प्राक्कथन प्रथम पृष्ठ पर लिखा है कि "यह तो आगम, अनुभव और युक्ति से ही सिद्ध है कि ससार मे जड और चेतन जितने भी पदार्थ है वे सब स्वतंत्र है | जो शरीर ससारी जीव के साथ वाह्य दृष्टि से एक क्षेत्रावगाही हो रहा है वह भी पृथक है । वस्तुत इस सनातन सत्य का बोध न होने के कारण ही यह जीव अपने को भूला हुआ है । उसके दुख का निदान भी यही है । यद्यपि यह ससारी जीव दुख से मुक्ति चाहता है, परन्तु जब तक आत्माअनात्मा का भेद विज्ञान होकर इसे ठीक तरह से अपने आत्म् स्वरूप की उपलब्धि नही होती तब तक इसका दुख से निवृत्त होना असंभव है । सब से पहले इसे यह जानना जरूरी है कि मेरे ज्ञान-दर्शन स्वभाव आत्मा से भिन्न अन्य जितने जड-चेतन पदार्थ हैं वे पर हैं । उनका परिणमन उनमे होता है और आत्मा का परिणमन आत्मा मे होता है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को बलात् नही परिणमा मकता है । यद्यपि काकतालीयन्याय से कभी